रोज पत्थर की हिमायत में ग़ज़ल लिखते हैं रोज़ शीशों से कोई काम निकल पड़ता है.
फूल बेचारे अकेले रह गए है शाख पर गाँव की सब तितलियों के हाथ पीले हो गए.
अब तो हर हाथ का पत्थर हमें पहचानता है उम्र गुज़री है तिरे शहर में आते जाते.
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