रोज पत्थर की हिमायत में ग़ज़ल लिखते हैं रोज़ शीशों से कोई काम निकल पड़ता है.

नए किरदार आते जा रहे हैं मगर नाटक पुराना चल रहा है.

दोस्ती जब किसी से की जाए दुश्मनों की भी राय ली जाए.

राहत इंदौरी  शायरी

मैं पर्बतों से लड़ता रहा और चंद लोग गीली ज़मीन खोद के फ़रहाद हो गए.

रोज़ तारों को नुमाइश में ख़लल पड़ता है चाँद पागल है अँधेरे में निकल पड़ता है.

फूल बेचारे अकेले रह गए है शाख पर  गाँव की सब तितलियों के हाथ पीले हो गए.

अब तो हर हाथ का पत्थर हमें पहचानता है  उम्र गुज़री है तिरे शहर में आते जाते.

राहत इंदौरी शायरी

राहत इंदौरी की ऐसी और शायरिया पढने के लिए निचे दिए लिंक पर क्लिक करे.

Arrow