ज़ख़्म खरीद लाया हूं बाज़ार-ए-इश्क़ से, दिल ज़िद कर रहा था मुझे इश्क चाहिए.

कितनी अजीब है इस शहर की तन्हाई भी, हजारों लोग हैं मगर कोई उस जैसा नहीं है.

खुद को खोकर मिले थे तुम, अब साँझ अकेली साथ नहीं तुम.

दिल गया तो कोई आँखें भी ले जाता, फ़क़त एक ही तस्वीर कहाँ तक देखूँ.

तुम मेरे बाद हुये हो तन्हा.. मैं तेरे साथ भी अकेला था.

कहने लगी है अब तो मेरी तन्हाई भी मुझसे, मुझसे कर लो मोहब्बत मैं तो बेवफा भी नहीं,

झूठ कहूँ तो बहुत कुछ है मेरे पास, सच कहूँ तो कुछ नही सिवा तेरे मेरे पास.

काश तू समझ सकती मोहब्बत के उसूलों को, किसी की साँसों में समाकर उसे तन्हा नहीं करते.

किसके साथ चलूं, किसकी हो जाऊं, बेहतर है अकेली रहूँ और तन्हा हो जाऊं.

Alone Shayari

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